सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कोविड-19 की दूसरी लहर में आर्थिक तंगी और परेशानियों के मद्देनजर फिर से लोन मोराटोरियम (ऋण स्थगन राहत) व बैंकों द्वारा एनपीए की घोषणा पर अस्थायी रोक लगाने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि वह वित्तीय मामलों का विशेषज्ञ नहीं हैं।
जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा कि हम स्वीकार करते हैं कि हम वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं। हम वित्तीय प्रभावों का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। ये मुद्दे नीतिगत फैसलों के दायरे में हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह सरकार का काम है कि वह स्थिति का आकलन कर उचित निर्णय ले।
दरअसल, वकील विशाल तिवारी ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर और लॉकडाउन के दौरान कर्जदारों को कुछ राहत देने की मांग की थी। उन्होंने दावा किया कि महामारी की दूसरी लहर ने कम से कम एक करोड़ लोगों को बेरोजगार कर दिया है।
हालांकि पीठ ने कहा कि आरबीआई द्वारा जारी किए गए कुछ सर्कुलर के अनुसार वह कुछ वित्तीय पैकेजों की घोषणा पहले ही कर चुका है। जवाब में याचिकाकर्ता वकील ने कहा कि यह मध्यम वर्गीय परिवारों की समस्याओं का समाधान करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस पर पीठ ने कहा कि हम वित्तीय मामलों पर फैसला नहीं कर सकते।
पीठ ने यह भी कहा कि सरकार के पास टीकाकरण, प्रवासी श्रमिकों आदि जैसे अन्य महत्वपूर्ण मामले हैं। अदालत ने आखिरकार यह कहते हुए मामले का निपटारा कर दिया कि सरकार को उचित फैसला लेना चाहिए।
याचिका में केंद्र को सभी वित्तीय संस्थानों को सावधि ऋण के लिए ब्याज मुक्त मोरोटोरियम देने और छह महीने की अवधि के लिए या कोविड-19 की स्थिति जारी रहने तक ऋण किस्तों के भुगतान को स्थगित करने की अनुमति देने की मांग की गई थी।
याचिका में कहा गया था कि बैंक या वित्तीय संस्थान छह महीने की अवधि के लिए किसी भी नागरिक या किसी कॉरपोरेट निकाय की संपत्ति के संबंध में नीलामी की कार्रवाई नहीं करें। साथ ही यह भी मांग की गई थी कि कोविड-19 महामारी में दूसरी लहर के मद्देनजर छह महीने की अवधि के लिए किसी भी खाते को गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) घोषित नहीं किया जाना चाहिए।
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